कलकत्ता का दक्षिणेश्वर काली मंदिर बनवाने वाली धींवर रानी रासमणि , इतिहास में आज भी अमर है
15 सितंबर 2018
कलकत्ता में प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर काली मंदिर बनवाकर 'जय काली, कलकत्ते वाली' के जयकार उदघोष से कलकत्ता (बंगाल) को विश्व में पहचान दिलाने का श्रेय धींवर मूल की महान वीरांगना रानी रासमणि को जाता है।
रानी रासमणि का जन्म 28 सितम्बर 1793 को बंगाल के छोटे से गांव कोना (अब 24 पूर्वी परगना जिला का हिस्सा) में धींवर जाति के हरीकृष्ण दास के घर हुआ था (हालांकि कुछ लोग उन्हें समाज की केवर जाति की महिष्या जाति का भी बताते है) 1804 में जब वह 11 साल की थीं तो पिता ने उनका विवाह जॉन-बाजार (कोलकत्ता) के ज़मीदार बाबू राज़चन्द्र दास से कर दिया, जिनका परिवार उस समय आर्थिक बदहाली की स्तिथि में था।
उस समय भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था और उन्होंने राजधानी कोलकाता को बनाया हुआ था । बाबू राज़चन्द्र दास के परिवार में रानी रासमणि के आते ही कारोबार में लाभ होने लगा। रानी रासमणि ने कई अवसरों पर कोलकाता में अपनी प्रजा के कल्याण के लिए अंग्रेज शाशन/अफसरों के सम्मुख दृढ़ता दिखाकर जनमानस में लोकप्रियता हासिल करी। उनकी इसी लोकप्रियता के कारण उनको 'रानी' की उपाधि दी गयी थी।
1836 में रानी रासमणि के पति की 48 वर्ष की आयु में देहांत हो गया, उस समय रानी रासमणि 43 साल की थीं, त्रासदी के बावजूद रासमणि ने अपने पति के कारोबार को न केवल संभाला, बल्कि उसे दिशा भी दी और व्यापर से होने वाले लाभ का एक हिस्सा समाज के कामों में लगाने लगी।
19वीं शताब्दी तक कोलकाता में प्रतिष्ठित मंदिर नहीं थे और वहां के ज़्यादातर लोग पूजा-अर्चना हेतु बनारस जाते थे। 1847 में रानी रासमणि को भी बाबा विश्वनाथ एवं देवी अन्नपूर्णा के दर्शन हेतु बनारस जाने की इच्छा हुई। जिस दिन उन्हें यात्रा को जाना था तो पूर्व रात्रि में देवी ने उनके सपने में आकर उनसे कोलकत्ता में काली मंदिर बनाने को कहा। स्वप्न के तुरंत बाद रानी रासमणि ने यात्रा स्थगित कर, यात्रा का सामान गरीबो में बाँट दिया।
दक्षिणेश्वर काली मंदिर के लिए रानी रासमणि ने हुगली नदी पूर्वी तट पर दक्षिणसोर गांव के समीप लगभग 55 बीघा ज़मीन जॉन नाम के अंग्रेज से खरीदी और वहां पर काली माँ मंदिर का काम शुरू करवाया। रानी रासमणि ने उसी वर्ष 1847 में ज़मीन पर मंदिर निर्माण का काम शुरू करवा दिया, जो निरंतर आठ वर्ष तक चला और उस समय काली मंदिर निर्माण पर लगभग 9 लाख रुपये खर्च हुए।
रानी रासमणि ने 31 मई, 1855 को काली मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करवा दी थी लेकिन रानी के धींवर जाति के होने के कारण पूजा पाठ के लिए कोई ब्राह्मण पुजारी तैयार नहीं हुआ तो रानी रासमणि ने इस काली मंदिर में उस वक्त के महान संत एवं विचारक श्री रामकृष्ण परमहंस के भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को पुजारी नियुक्त किया और 1856 में रामकुमार चट्टोपाध्याय की मृत्यु के बाद 'स्वामी रामकृष्ण परमहंस' को पुजारी नियुक्त किया था, जिन्हे इसी काली मंदिर में ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
जनहित में धींवर रानी रासमणि का अंग्रेजो संघर्ष :
धींवर रानी रासमणि स्वदेशी पसंद और बुद्धिमान साहसी महिला थी। उस समय कलकत्ता में अंग्रेजी शासन स्थापित था और एक दिन गोरे असुरों ने उनकी रियासत जॉन बाजार के महल में घुसकर हंगामा किया तो रानी ने उस समय उनका मुकाबला करके उनको भगा दिया था । इसके कुछ दिन बाद अंग्रेजो ने रानी राजमणि को नीचा दिखाने के लिए उनके स्वजाति धींवर लोगों को निशाना बनाया और उनके गंगा में से मछली पकड़ने पर कर' लगा दिया ।
स्वजाति लोगों के भूखे मारने की नौबत आ गयी, ऐसे समय में धींवर रानी रासमणि ने बुद्धिमानी से कूटनीति अपनाते हुए दस हजार में वो मछली पकड़ने वाली जगह अंग्रेज बहादुर से खरीद ली, जिससे स्वजाति धींवरो को बिना कर मछली पकड़ने की छूट मिल गयी। इसके कुछ समय बाद रानी रासमणि ने उस पूरी जगह की घेरा बंदी करवा दी जिससे अंग्रेज बहादुर की बोट स्टीमर रुक गए । अंग्रेज कुछ कर भी नहीं सकते थे, क्योंकि अब ये जगह रानी रासमणि की मालकियत थी, और इसके बाद अंग्रेज बहादुर ने रानी के साथ समझोता किया दस हजार वापस दिए और उनके स्वजाति धींवर लोगो को बिना कर मछली पकड़ने की छूट मिली।
भारतीय जोहरियो से चांदी का रथ बनवाना :
उस समय बंगाल में स्नान यात्रा का महत्व था । धींवर रानी रासमणि ने भी माँ काली के चांदी का रथ वनवाने का सोचा तो उनके दामाद ने उस समय के कलकत्ता के प्रसिद्ध जोहरी हेमिल्टन को सवा लाख में दिया तो रानी रासमणि ने यह कहकर कि क्या हमारे सारे भारतीय जोहरी मर गए ? इसके बाद रानी वह रथ भारतीय कारीगरों ने बनाया। रथ बनने के बाद ढोल नगाड़ो को बजाकर यात्रा निकली गयी , आज जहा ईडन गार्डन है उस के पास स्थित बाबू घाट के पास यह देवी की यात्रा निकलती थी । किसी ने द्वेष भावना से ल ढोल नगाड़े की शिकायत अंग्रेज बहादुर को कर दी और उन पर अंग्रेज बहादुर ने 50 रुपए का जुर्माना लगाया । रानी रासमणि ने परिचय देते हुए रानी ने जुर्माना जमा करवाया और रातो रात बाबू घाट से जॉन बाजार तक का पूरा इलाका बाड़ से घेर लिया, यह इलाका पूरा वैसे रानी की मालकियत का था सो सरकारी विरोध कोई काम नहीं आया, आखिर सरकार झुकी और समझोता हुया लिखित माफीनामा लिखा गया जुर्माना की रकम वापस मिली।
इस प्रकार रानी रासमणि ने अपनी बुद्धिमानी और दृढ़ता से अंग्रेजो को कई बार झुकने पर मजबूर किया । 19 फरवरी 1861 को कश्यप-निषाद समुदाय की यह महान वीरांगना रानी रासमणि ने अपनी ज़िन्दगी का सफ़र पूरा कर स्वर्ग प्रस्थान कर गयी ।
धींवर रानी रासमणि के बारे में रामकृष्ण परमहंस ने भी अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है । दक्षिणेश्वर काली मंदिर को जाने वाले एक मार्ग का नाम रानी रासमणि मार्ग है । इसके इलावा सेन्ट्रल कोलकत्ता के जान बाजार इलाके में उनकी भवन को रानी रासमणि एवन्यू के नाम से प्रसिद्द है । जॉनबाजार की मुख्य सड़क का नाम भी रानी रासमणि के नाम पर है ।
वर्तमान में धींवर रानी रासमणि का बनवाया यह मंदिर कोलकत्ता की पहचान है। महान रानी रासमणि की याद में दक्षिणेश्वरी काली मंदिर प्रांगण में उनका मंदिर भी स्थापित किया गया है। कोलकत्ता में हुगली/गंगा तट के नज़दीक एस्पलेनैड नामक स्थान पर रानी रासमणि का स्टेचू भी स्थापित किया गया है।
भारत सरकार ने भी इस महान वीरांगना की याद में वर्ष 1994 में डाक टिकट ज़ारी किया था। कोलकत्ता की प्रसिद्ध मैजेस्टिक लाइब्रेरी की सथापना भी रानी रासमणि ने ही की थी,जो अब नेशनल लाइब्रेरी के नाम से है। इसके इलावा उस समय कोलकत्ता में बना हिन्दू कॉलेज जोअब प्रेसीडेंसी कॉलेज है, भी रानी रासमणि की ही देन है।
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