निर्बल कहाँ सबल हूँ मैं (आध्यात्मिक लेख) - सुमित नरूला

● निर्बल कहाँ सबल हूँ मैं  (आध्यात्मिक लेख) ।
कृष्ण के अनन्य भक्त जन्मान्ध श्री सूरदास जी का अपने इष्ट के प्रति प्रेम एक जगत उदाहरण है। जिसमें इन्होंने केवल मन की आंखों से देखकर कृष्ण की बाल लीला से उनके बड़े होने तक संपूर्ण विवरण कलमबद्ध कर इस संसार को दिया। चाहे वो कृष्ण के धरती पर प्रथम पग रखकर चलते समय उनके पैरों में पहनी हुई पायलों के नुपरु की मधुर ध्वनि के बारे में अत्यंत प्रेम से परिपूर्ण हैं, तो कहीं भगवान कृष्ण की माखन चोरी की लीला पर मीठे उलहानों के पीछे अगाध भक्ति एवं वात्सल्य प्रेम का अत्यंत ही अनूठा विवरण है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने परममित्र कान्हा के साथ ही बाल लीला को देखते हुए उन्हीं के साथ-साथ उनके अन्य सभी लीलाओं के परिदृश्य को अपने हृदय में उतारते हुए अगाध प्रेम से उसे बता रहे हैं। 
                         सांकेतिक तस्वीर
एक समय भगवान श्री कृष्ण ने सूरदास जी की इस अगाध भक्ति एवं प्रेम का परीक्षा लेने का निश्चय किया। एक दिवस सायं काल तक कृष्ण की रचनाओं का विवरण करते हुए रात्रि का प्रथम पहर हो चुका था तो किसी ने सूरदास जी को कहा कि अब समय बहुत हो चुका है रात्रि हो गयी है, आप अपने घर की ओर प्रस्थान करें। कृष्ण प्रेम में मगन तन्मयता से उनके प्रति समर्पित सूरदास जी चल पड़े मन में, हृदय में, जिहवा पर हर ओर कृष्ण ही थे। अंधे होने के कारण उन्हें दिखायी नहीं दिया। मार्ग पर किसी आने-जाने वाले की आहट भी सुनायी नहीं दी। बेबसी में मार्ग पर धीरे-धीरे चलते हुए वो एक अंधे कुंए में जा गिरे। कुंए के अंदर चारो तरफ से स्पर्श कर उन्हें ये विदित हुआ कि वो किसी कूप में गिर पड़े हैं। बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं और स्वयं भी शारीरिक रूप से असमर्थ है। इतना होने के बाद भी उन्होंने कृष्ण नाम की रट लगाना नहीं छोड़ा और उन्हीं की लीलाओं को अपने पदों में गाते रहे जिसकी मधुर ध्वनि भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में पहुंचकर उनके कानों में भी सुनायी पड़ी। तब उन्होंने मन में ये सोचा आज मैं अपने इस परम भक्त की परीक्षा लेता हूं जो मेरी हर लीला का वर्णन करता है। क्या वो मुझे पहचान पाएगा। कृष्ण ने उस कुंए के पास जाकर आवाज लगायी कौन हो भाई, कैसे इस कुंए में गिर पड़े। उन्होंने कहा मैं जन्मान्ध हूं मेरा नाम सूरदास है। कुछ दिखायी न देने के कारण मैं इस कुंए में गिर पड़ा हूं अगर इच्छा हो तो मुझे यहां से बाहर निकलो ताकि मैं जाकर अपने कान्हा की लीला को मन की आंखों से देख सकूं। कृष्ण ने हाथ बढ़ाया और मन ही मन समझ गये कि ये मुझे एक राहगीर समझ कर मेरे से सहायता की अपेक्षा कर रहें हैं। सूरदास को कुंए से बाहर निकाल कर अपना हाथ छुड़ाया। और वापिस जाने के लिए तत्पर हुए तभी उनके भक्त श्री सूरदास जी के हृदये से ये पंक्ति उनके मुखारबिन्द से उदरथ हुई कि जिससे श्री कृष्ण का सारा भ्रम एक बार में ही समाप्त हो गया वो पंक्तियां थी-
‘‘हाथ छुड़ाये जात हो, निर्बल जानि के मोय। 
हृदय से जब जाओगे, सबल बखानू तोय’’।।
ये सुनते ही कृष्ण के नेत्रें से अक्षु पूर्ण धारा स्वयं ही प्रवाहित हो गयी और उन्होंने सूरदास जी से कहा मैं क्षमा प्रार्थी हूं कि मैंने आप जैसे भक्त की परीक्षा लेने के बारे में विचार किया। ये सत्य है कि भगवान से बड़ा तो भक्त है और ये आपने सिद्ध किया कि निर्बल आप नहीं हैं। आप की मेरे प्रति भावनाएं सदैव ही अत्यंत पवित्र थी और प्रेममय थी जिन्होंने आज आपको सबल बना दिया। इस पर सूरदास जी ने हाथ जोड़कर विनती करी कि प्रभु आप तो मेरे हृदय में विराजमान है और सदैव मुझमें समाहित हैं। अतः आप मेरे से बाँह छुड़ाकर जाएंगे कहां? यदि मुझमें बल है तो भी आपका है क्योंकि निर्बल तो आप हो ही नहीं सकते। यह तो मात्र एक कुंए में से निकालने का आपने मुझ पर उपकार किया किन्तु यह भी आपको विदित है कि आपकी इसी भक्ति ने मुझे संसार के भवसागर रूपी कुंए से पार करा दिया। ये जगत भी एक मिथ्या एवं अंधे कूप के समान है जिसमें प्राणी पड़ा रहता है वही पार उतरता है जिसे आप स्वयं निकालते हो। अतः सबल आप ही हैं। आप परमात्मा हैं, मेरी आत्मा भी आपका अंश है। एक प्रकाश पुंज अपनी किरणों को कैसे अपने से अलग कर सकता है। इसी कारण आपने मुझे अपनी भक्ति प्रदान कर असीम कृपा की है। जन्मान्ध होना भी आपकी कृपा है प्रभु। यदि नेत्र होते तो संसार के मायाजाल को देखता और उसी काल चक्र में फंसा रहता। नेत्रहीन होने के कारण मन की आंखों से केवल आपका दर्शन करता हूं। आपमें ही समर्पित हूं। मुझ जैसे शारीरिक रूप से निर्बल को आपने अपनी एकाग्र भक्ति प्रदान कर कृतज्ञ कर दिया। मैं निर्बल से सबल हो गया।
लेख साभार- सुमित नरूला

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